सुनार भारत और नेपाल में पाया जाने वाला एक हिंदू जाति है.इस वीर और महान
जाति का इतिहास स्वर्णिम और गौरवशाली रहा है. यह भारत की मूल निवासी जाति है. यह
सुंदर, चरित्रवान और साहसी होते हैं. इन्हें सोनार या
स्वर्णकार भी कहा जाता है. मूलतः यह क्षत्रिय वर्ण में आते हैं,
इसीलिए इन्हें क्षत्रिय स्वर्णकार भी कहा जाता है. गुजरात और राजस्थान में
इस समुदाय को सोनी के नाम से जाना जाता है. हरियाणा में इन्हें प्रायः स्वर्णकार
के रूप में जाना जाता है. पंजाब और राजस्थान में मैढ़ राजपूत सोनार का काम करते
हैं. आइए जानते हैैं सुनार
जाति का इतिहास, सुुनार की
उत्पत्ति कैसे हुई?
सुनार का पेशा
इनका पारंपरिक पेशा सोना, चांदी और अन्य
बहुमूल्य धातुओं से आभूषण का निर्माण करना और बिक्री करना;
और बहुमूल्य रत्नों का व्यापार करना है. ये दूसरों के पुराने गहने की
खरीदारी भी करते हैं और उन्हें उचित मूल्य लगाकर पैसे देते हैं. गहना गिरवी रखकर
ब्याज पर पैसा देने वाले सोनार कहलाते हैं.
हालांकि सुनार आज भी अपने परंपरागत कार्य यानी कि सोने और अन्य बहुमूल्य धातु के आभूषण निर्माण और विक्रय का कार्य करते हैं. ग्रामीण इलाकों में रहने वाले कुछ सुनार परंपरागत कार्य छोड़ खेती भी करने लगे हैं. लेकिन बदलते समय में, बेहतर शैक्षिक सुविधाओं और रोजगार के नए अवसरों की उपलब्धता के साथ, ये अन्य पेशा और व्यवसाय को भी अपनाने लगे हैं, जिसमें वह काफी सफल भी हो रहे हैं.
सुनार किस
कैटेगरी में आते हैं?
बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड,
छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा,
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान,
उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)
के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
सुनार की
जनसंख्या, कहां पाए जाते हैं?
सुनार जाति भारत के सभी राज्यों में निवास करती है. यह मुख्य रूप से बिहार,
उत्तर प्रदेश, झारखंड, हरियाणा,
राजस्थान, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में पाए जाते हैं.
मध्य भारत के राज्यों जैसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इनकी अच्छी खासी आबादी
है. अमीर और संपन्न सुनारों की आबादी गांवों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों,
विशेष रूप से बड़े शहरों में, अधिक है.
सुनार किस धर्म को मानते हैं?
सुनार मुख्य रूप से हिंदू होते हैं. लेकिन इसके कुछ सदस्य सिख भी हैं जो
हरियाणा और पंजाब में पाए जाते हैं.
सुनार जाति वर्ग और सरनेम
सुनार शब्द की
उत्पत्ति कैसे हुई?
अन्य जातियों की भांति सुनार जाति में भी उपसमूह या उपजातियां पाई जाती है.
इस जाति में अल्ल की परंपरा प्राचीन है. सुनार जाति प्रादेशिक और गैर क्षेत्रीय
समूहों में विभाजित है, जिसे अल्ल कहा जाता है. अल्ल का अर्थ होता है-
निकास अर्थात जिस जगह से इनके पूर्वज निकल कर आए और दूसरी जगह जाकर बस गए.
प्रत्येक उप समूह एक विशेष क्षेत्र से जुड़ा हुआ है जहां से इनके पूर्वज थे. जैसे
परसेटहा, मूल रूप से मध्य प्रदेश के रीवा और सीधी जिले
के रहने वाले.
कुछ प्रमुख अल्लो के नाम इस प्रकार हैं: अखिलहा,
अग्रोया,
कटिलिया कालिदारवा, कटारिया, कटकारिया,
कड़ैल, कदीमी, कुकरा,
देखालन्तिया, खजवाणिया, गेदहिया,
ग्वारे,
धेबला, चिल्लिया, चिलिया,
छिबहा, जडिया, जवडा,जौड़ा,
झंकखर, डांवर, डसाणिया,
ढल्ला, नौबस्तवाल, निमखेरिया,
नेगपुरिया, नौबस्तवाल, नागवंशी,नरबरिया,
तित्तवारि, देखलंतिया, दैवाल,
पितरिया, पलिया, बेरेहेले,
बंगरमौआ, भीगहिया, भटेल,
भड़ेले, भुइगइयाँ, भदलिया,
भोमा, मुंडाहा, मदबरिया,
मथुरेके पलिया, महिलबार, मुण्डहा,
रोडा, संतानपुरिया, समुहिया,
सड़िया, सुरजनवार, समुहिया,
शाहपुरिया आदि
सुनार जाति में प्रचलित प्रमुख उपनाम हैं – सोनी,
सूरी, सेठ, स्वर्णकार,
शाह, भूटानी, सोनिक,
कपूर, बब्बर, मेहरा,
रस्तोगी, वर्मा आदि
सुनार शब्द की
उत्पत्ति कैसे हुई?
सुनार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “स्वर्ण+कार” से हुई है. “स्वर्ण”
का अर्थ होता है- सोने की धातु और “कार” का अर्थ होता है-बनाने वाला. इस तरह से
सुनार शब्द संस्कृत के शब्द स्वर्णकार का अपभ्रंश है,
जिसका अर्थ होता है- सोने की धातु से आभूषण बनाने वाला.
सुनार जाति का
इतिहास
सभ्यता के आरंभ में निश्चित रूप से कुछ ऐसे लोग जो सोने और बहुमूल्य धातुओं
से आभूषण बनाने की कला में निपुण थे. पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते हुए उनकी एक जाति बन
गई, जिसे आम बोलचाल की भाषा में सुनार कहा जाने
लगा.समय के साथ सुनार जाति के व्यवसाय को अन्य वर्ण और जाति के लोगों ने भी अपनाना
शुरू कर कर दिया और वे स्वर्णकार कहलाए. इसका अर्थ यह हुआ कि स्वर्णकार किसी अन्य
जाति के भी हो सकते हैं.
सुनार जाति की उत्पत्ति के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है. इस जाति
की उत्पत्ति के बारे में कई मान्यताएं हैं. यह सभी मान्यताएं ब्राह्मणवादी
किंवदंतियों पर आधारित है.
सोनवा नामक दैत्य और सुनार की कहानी
एक किवदंती के अनुसार, सृष्टि के आरंभ
में देवी (Goddess Devi) मानव जाति के
निर्माण में व्यस्त थी. सोनवा नामक एक विशालकाय दैत्य,
जिसका पूरा शरीर सोने से बना था, देवी की रचनाओं
को उतनी ही तेजी से खा जाता था, जितनी तेजी से
माता उसका निर्माण करती थी. फिर राक्षस को चकमा देने के लिए देवी ने एक सुनार को
बनाया और उसे कला के उपकरण दिए. देवी ने सुनार को दैत्य को चकमा देने का उपाय
बताया. जब राक्षस सुनार को खाने आया तो सुनार ने उसे सुझाव दिया कि यदि उसके शरीर
पर पॉलिश कर दिया जाए तो उसका रूप बहुत निखर जाएगा. सुनार ने दैत्य से इस काम को
करने की अनुमति देने के लिए कहा.
दैत्य इस तरकीब में फंस गया और अपनी एक उंगली में पॉलिश होने के परिणाम को
देखकर इतना प्रसन्न हुआ कि पूरे शरीर को पॉलिश कराने के लिए सहमत हो गया. इस कार्य
के लिए राक्षस के शरीर को पिघलाना था. अनुलाभ या पुरस्कार के रुप में सुनार को
राक्षस का धड़ दिया जाना था, जबकि सिर देवी को
देना था. इस तरह से सिर को धड़ से अलग करके राक्षस को निष्क्रिय करना था. लेकिन
सुनार केवल धड़ अपने पास रख कर संतुष्ट नहीं था. उसने सिर के एक हिस्से को चुराने
की बात सोची. देवी को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने सुनार और उसके वंशजों को हमेशा
के लिए निर्धन रहने का श्राप दे दिया.
मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज
सुनार जाति की उत्पत्ति के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है. लोकमानस
में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार, त्रेता युग में
भगवान परशुराम ने जब एक एक करके सभी क्षत्रियों का संहार करना आरंभ कर दिया तो दो
क्षत्रिय (राजपूत) भाइयों को सारस्वत ब्राह्मण ने बचा लिया और उन्हें कुछ समय के लिए
मैढ बता दिया. उनमें से एक भाई ने सोने से आभूषण बनाने का काम सीख लिया और सुनार
बन गया. जबकि दूसरा भाई खतरे को भांप कर खत्री बन गया. फिर दोनों भाइयों ने आपस
में रोटी और बेटी तक का संबंध ना रखा ताकि किसी को इस बात का पता ना चले कि दोनों
वास्तव में क्षत्रिय हैं. वर्तमान में इन्हें मैढ राजपूत के नाम से जाना जाता है.
यह वही राजपूत हैं जिन्होंने सोने के आभूषण बनाने को अपने पारंपरिक कार्य के रूप
में चुना है.
मैढ़ राजपूत
मैढ़ राजपूत स्वर्णकार समुदाय पारंपरिक रूप से उत्तर भारत में पाया जाता है.
“Structure and change in Indian society” नामक पुस्तक में
इस बात का जिक्र मिलता है कि मैढ समुदाय उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने ब्रिटिश
शासन द्वारा आधिकारिक वर्गीकरण को चुनौती दी थी. यह वर्गीकरण काफी हद तक सर
हर्बर्ट होप रिस्ले के सिद्धांतों पर आधारित था. इस प्रणाली के तहत,
भारत के विभिन्न समुदायों को 1901 की जनगणना में
सामाजिक संरचना के अंतर्गत वर्गीकरण करके स्थान दिया गया था. 1911
में, मैढ़ जाति के लोगों ने उस वर्गीकरण को पलटने के
लिए याचिका दायर किया गया था जिसमें कहा गया था कि
“आदिकाल से हम समाज में अपने भाई राजपूतों के समान उच्च स्थान रखते थे.
लेकिन कई उतार-चढ़ाव के दबाव में हमें किसी हस्तशिल्प द्वारा अपना जीवन यापन करना
पड़ा. आमतौर पर हम कीमती धातुओं में काम करना पसंद करते हैं. इसीलिए हम समाज में
सोनार या जोहरी कहलाने लगे. आज हमने सर्वशक्तिमान ईश्वर की कृपा और ब्रिटिश अधिकारियों
के मदद से अपनी खोई हुई राजपूत प्रतिष्ठा और उपाधि फिर से वापस पा लिया है”.